संगम युग
एतिहासिक युग के प्रारंभ में दक्षिण भारत का क्रमबद्ध इतिहास हमे जिस साहित्य से ज्ञात होता है उसे संगम साहित्य कहा जाता है। संगम शब्द का अर्थ परिषद् अथवा गोष्ठी होता है जिनमें तमिल कवि एवं विद्वान एकत्र होते थे। प्रत्येक कवि अथवा लेखक अपनी रचनाओं को संगम के समक्ष प्रस्तुत करता था तथा इसकी स्वीकृति प्राप्त हो जाने के बाद ही किसी भी रचना का प्रकाशन संभव था। परम्परा के अनुसार अति प्राचीन समय में पाण्ड्य राजाओं के संरक्षण में कुल तीन संगम आयोजित किए गए। इनमें संकलित साहित्य को ही संगम साहित्य की संज्ञा प्रदान की गयी।
उपलब्ध संगम साहित्य का विभाजन तीन भागों में किया जाता है–
1. पत्थुप्पात्तु 2. इत्थुथोकै तथा 3. पादिनेन कीलकन्क्कु ।
> तिरूवल्लुवर कृत कुराल तमिल साहित्य का एक आधारभूत ग्रंथ
बताया जाता है। इसके विषय त्रिवर्ग आचारशास्त्र, राजनीति, आर्थिक जीवन एवं प्रणय से संबंधित है।
प्रथम संगम (4440 वर्ष पूर्व )— मदुरा (समुद्र में विलीन) —अगस्त्य — महत्वपूर्ण ग्रन्थ :अकट्टियम परिपदाल, मदुनार, मुदुकुरुकु तथा कलारि आविरै । (कोई भी इनमें उपलब्ध नहीं है।)
दूसरा संगम (3700 वर्ष पूर्व) — कपाटपुरम (अलैवाई) (समुद्र में विलीन) – अगस्त्य —तोल्काप्पियम (तमिल व्याकरण रचनाकार–तोल्काप्पियर) –
तीसरा संगम 1850 वर्ष पूर्व — मदुरा —नक्कीरर — नेदुन्थोकै, कुरुन्थोकै, नत्रिनई, एन्कुरु भूरू, परिपादल, कुथु, वरि, पेरिसै तथा सित्रिसै आदि
कवियों और विद्वानों की परिषद् के लिए संगम नाम का प्रयोग सर्वप्रथम सातवीं शती के प्रारंभ में शैव सन्त (नायनार) तिरूनाबुक्क रशु (अप्पार) ने किया।
इलांगो कृत शिल्पादिकारम् (पायलों का गीत) एक उत्कृष्ट रचना है जो तमिल जनता में राष्ट्रीय काव्य के रूप में मानी जाती है। इसमें 30 सर्ग हैं जिन्हें तीन खण्डों में लिपिबद्ध किया गया है। यह बौद्ध रुझान वाला महाकाव्य है। इसमें कावेरीपट्टन के कोवलन उसकी पत्नी कण्णगि एवं नर्तकी माधवी की प्रेम कहानी है।
मदुरा के बौद्ध धर्मावलंबी व्यापारी सीतलैसत्तनार ने मणिमेकले की रचना की। इसमें 30 सर्गों के अतिरिक्त एक प्रस्तावना भी है। इसमें जैन प्रभाव है। इसमें राजकुमार उदयकुमारन् एवं मणिमेकलै (कोवलन एवं नर्तकी माधवी की पुत्री) की प्रेम कहानी है। इस ग्रंथ की कहानी दार्शनिक एवं शास्त्रार्थ संबंधी बातों के लिए बनाई गई है। इसका महत्व मुख्यतः धार्मिक है। नीलकंठ शास्त्री के अनुसार यह बौद्ध लेखक दिङनाथ (5वीं शती) की कृति न्याय प्रवेश‘ पर आधारित है।
जीवकचिन्तामणि संगमकाल के बहुत बाद की रचना है। इसकी रचना का श्रेय जैन भिक्षु तिरुत्तक्क देवर को दिया जाता है। कहा जाता है कि तिरुत्तक्क देवर पहले चोल राजकुमार था जो बाद में जैन भिक्षु बन गया।
तोल्काप्पियम, तमिल व्याकरण है। पाँचवीं सदी के बाद बहुत सी प्रसिद्ध तमिल रचनाएँ नैतिक एवं दार्शनिक उद्देश्यों से लिखी गयीं, इनमें तिरुवल्लुवार की तिरुकुरल सबसे प्रसिद्ध है।
रामकथा के अनेक तमिल संस्करण हैं, जिनमें सबसे प्रसिद्ध कम्बन की इरामावतारम है।
संगम साहित्य के काव्य को दो श्रेणियों में बाँटा गया है.....अकम और पुरम। अकम काव्यों का मूल विषय प्रेम प्रसंग है जबकि पुरम काव्यों का विषय युद्ध है।
संगम साहित्य में हमें तमिल प्रदेश के तीन राज्यों चोल, चेर, तथा पाण्ड्य का विवरण प्राप्त होता है। उत्तर–पूर्व में चोल, दक्षिण पश्चिम में चेर तथा दक्षिण–पूर्व में पाण्ड्य राज्य स्थित था।
संगम युगीन राज्यों में सर्वाधिक शक्तिशाली चोलों का राज्य था। यह पेन्नार तथा दक्षिणी वेल्लारू नदियों के बीच स्थित था। इसका सबसे प्रतापी राजा करिकाल था।
करिकाल ब्राह्मण मतानुयायी था और इसे ब्राह्मण धर्म को राजकीय संरक्षण प्रदान किया। पुहार पत्तन का निर्माण इसी के समय हुआ। इसने कावेरी नदी के मुहाने पर बाँध बनवाया तथा सिंचाई करने के लिए नहरों का निर्माण करवाया। पेरूनानुन्नुपादे में करिकाल को संगीत के सप्तस्वरों का विशेषज्ञ बताया गया है।
संगम युग का दूसरा राज्य चेरों का था जो आधुनिक केरल प्रान्त में स्थित था । इस राज्य के कुछ प्रमुख राजा हुए–उदियंजीरल (लगभग 130 ई.), नेदुंजीरल आदन (155 ई.) एवं सेनगुटुवन (180 ई.)।
सेनगट्टवन ने अधिराज की उपाधि ग्रहण की। इसने पत्तिनी नामक धार्मिक सम्प्रदाय को समाज में प्रतिष्ठित किया।
संगम युग का तीसरा राज्य पाण्ड्यों का था जो कावेरी के दक्षिण में स्थित था। इसकी राजधानी मदुरा में थी। पाण्ड्य राजाओं में नेडुंजेलियन (लगभग 210 ई.) सबसे शक्तिशाली था।
संगम युग में मंत्रियों को अमाइच्चान या अमाइच्चार कहा जाता था।
राजधानी में एक राजसभा होती थी जिसे नालवै कहा जाता था। यह राजा के साथ न्याय का कार्य करता था। राजा देश का प्रधान न्यायाधीश तथा सभी प्रकार के मामलों की सुनवाई की अंतिम अदालत होता था। राजा के न्यायालय को मन्नराम कहा जाता था।
चोरी तथा व्यभिचार के अपराध के लिए मृत्युदण्ड दिया जाता था। झूठी गवाही देने पर जीभ काट ली जाती थी।
भूमिकर नकद तथा अनाज दोनों रूपों में अदा किया जाता था। संभवतः यह उपज का छठा भाग होता था, किन्तु कभी–कभी इसे बढ़ाया जाता था। व्यापारियों से सीमा शुल्क एवं चुंगी वसूल की जाती थी।
सेना चतुरंगिणी होती थी जिसमें अश्व, गज, रथ तथा पैदल सिपाही सम्मिलित थे। नागड़ा एवं शंख बजाकर सैनिकों को बुलाया जाता था। यद्ध भूमि में वीरगति पाने वाले सैनिकों के सम्मान में पत्थर की मूर्ति बनवाए जाने की प्रथा थी।
राजा अपने आवास की रक्षा के लिए सशस्त्र महिलाओं को तैनात करता था।
संगम काल में समय जानने के लिए जल घड़ी का प्रयोग किया जाता था। तमिल प्रदेश में ब्राह्मणों का उदय सर्वप्रथम संगम काल में हुआ जो समय का सबसे प्रतिष्ठित वर्ग था। इसकी हत्या को सबसे बड़ा अपराध माना जाता था। संगम कालीन ब्राह्मण मांस भक्षण करते थे तथा सरा पीते थे।
ब्राह्मणों के पश्चात संगम युगीन समाज में वेल्लार वर्ग का स्थान था। इसका मुख्य पेशा कृषि कर्म था
पुलैयन: दस्तकारों का एक वर्ग था जो रस्सी तथा पशुचर्म की सहायता से चारपाई एवं चटाई बनाने का कार्य करते थे।
एनियर : शिकारियों की एक जाति थी
मलवर : लुटपाट करने वाली जाति थी
संगम साहित्य में व्यापारी वर्ग को वेनिगर कहा गया है।
संगम साहित्य में दास प्रथा के अस्तित्व का प्रमाण नहीं मिलता है।
संगम काल में कृषि, पशुपालन व शिकार जीविका के मुख्य आधार थे। दक्षिण भारत में अगस्त्य ऋषि द्वारा कृषि का विस्तार किया गया। जहाजों का निर्माण तथा कताई-बुनाई महत्वपूर्ण उद्योग थे । ‘उरैयूर’ सूती वस्त्र उद्योग का महत्वपूर्ण केन्द्र था। अधिकांश व्यापार वस्तु-विनिमय में होता था। बाजार को ‘अवनम’ कहते थे। पाण्ड्य राज्य के प्रमुख बंदरगाह शालीयुर, कोरकाय आदि थे। चोल राज्य के प्रमुख बंदरगाह पुहार और उरई थे। टालमी ने कावेरी पट्टनम को ‘खबेरिस’ नाम दिया है। तोंडी, मुशिरी तथा पुहार में यवन लोग बड़ी संख्या में विद्यमान थे। संगम काल में रोम के साथ व्यापार उन्नत अवस्था में था। अरिकामेडु से रोमन लोगों की बस्ती रोमन सम्राट ऑगस्टस व टिवेरियस की मुहरें मिली हैं। पेरिप्लस ने अरिकामेडु को ‘पोडुका’ कहा है। पश्चिमी देशों को काली मिर्च, मसाला , हाथीदांत ,रेशम , मोती, सूती वस्त्र, मलमल आदि का निर्यात किया जाता था। आयातित वस्तुओं में सिक्के, पुखराज, छपे हुए वस्त्र, शीशा, टीन, तांबा व शराब प्रमुख थे। पुहार एक सर्वदेशीय महानगर था । यहां विभिन्न देशों के नागरिक रहते थे । संगम काल में दक्षिण भारत का मलय द्वीपों व चीन के साथ भी व्यापार था। यूनान के दक्षिण भारत के साथ व्यापार के कारण ग्रीक भाषा में चावल, अदरक आदि शब्द तमिल भाषा से लिए गए थे। पेरिप्लस में संगम युग के 24 बंदरगाहों का उल्लेख किया है जो सिन्ध नदी के मुहाने से लेकर कन्याकुमारी तक विस्तृत थे। भूमि मापन की इकाई वैली या माहोती थी। अंबानम अनाज का माप था। नाली ,अल्लाकू और उल्लाक भी छोटे माप थे ।
तोल्काप्पियम नामक तमिल रचना से ज्ञात होता है कि संगम काल में विवाह को सस्कार के रूप में मान्यता प्रदान की गयी थी। इसमें हिन्दू धर्मशास्त्रों में वर्णित विवाह के आठ प्रकारों (ब्रह्मदेव, आर्ष, प्रजापत्य, असुर, गान्धर्व, राक्षस तथा पैशाच) का उल्लेख मिलता है।
प्रणय विवाह की मान्यता दी गई थी जिसे पंचतीनै कहा गया है। एक पक्षीय प्रणय को कैविकणे व अनुचित प्रणय को पेरून्दिण कहा गया है।
संगम काल में चावल मुख्य खाद्यान्न था। इसे दूध में मिलाकर सांभर नामक खाद्यान्न तैयार किया जाता था।
नर्तक, नर्तकियों व गायकों के दल धूम–धूम कर लोगों का मनोरंजन किया करते थे। संगम साहित्य में इन्हें पाणर व विलियर कहा गया है।
तमिल साहित्य में मच्चेलियर तथा ओवैयर जैसी कवियित्रियों की चर्चा हुई है जिससे स्पष्ट है कि इस काल की स्त्रियाँ सुशिक्षिता होती थी।
संगम काल के लोग कौवे को शुभ पक्षी मानते थो जो अतिथियों के आगमन की सूचना देता था। कौवे नाविकों को सही दिशा का भी बोध कराते थे। इस कारण सागर के मध्य चलने वाले जहाजों के साथ उन्हें ले जाया जाता था।
संगम काल में समाधियों के स्थान पर पत्थर गाड़ने की प्रथा थी। इन्हें वीरगल अथवा वीरप्रस्तर कहा जाता था। इनकी पूजा भी होती थी। प्रायः युद्ध में वीरगति प्राप्त सैनिकों के सम्मान में खड़े किए जाते थे।
संगम काल में किसानों को वेल्लार तथा उनके प्रमुखों को वेलिर कहा जाता था।
संगम साहित्य से पता चलता है कि समाज के निम्न वर्ग की महिलाएँ ही मुख्यतः खेती का कार्य किया करती थी। इने कडैसिवर कहा गया है।
संगम काल में चोलों की समृद्धि का मुख्य कारण उनका सुविकसित वस्त्रोद्योग था।
पाण्ड्य राज्य में कोर्कई, शालियूर एवं चेर राज्य में बन्दर प्रमुख बन्दरगाह था। कोर्कई मोती खोजने का प्रमुख पत्तन था।
कोरोमण्डल समुद्रतट पर पदुचेरी से तीन किमी दक्षिण में स्थित अरिकमेडु चोल वंश का एक प्रमुख बन्दरगाह था। इस बन्दरगाह से रोम के साथ व्यापार होता था। 1945 ई. में हुई यहाँ की खुदाई से एक विशाल रोमन बस्ती का पता चला है। यहाँ मनकों के निर्माण का कारखाना भी था। पेरिप्लस में अरिकमेडु को पेडोक कहा गया है।
संगम काल में ही मिस्र के एक नाविक हिप्पोलस ने मानसूनी हवाओं के सहारे बड़े जहाजो से सीधे समुद्र पार कर सकने की विधिखोजी।
तमिल देश का प्राचीन देवता मुरुगन था। कालान्तर में उसका नाम सुब्रह्मण्य हो गया और स्कन्द–कार्तिकेय के साथ उसका तादात्म्य स्थापित कर दिया गया। हिन्दू धर्म में स्कन्द–कार्तिकेय को शिव–पार्वती का पुत्र माना गया है। स्कन्द का एक नाम कमार भी है और तमिल भाषा में मुरुगन शब्द का यही अर्थ होता है। मुरुगन का प्रतीक मुर्गा माना जाता था तथा उसके विषय में यह मान्यता थी कि उसे पर्वत पर क्रीड़ा करना अत्यधिक प्रिय है। उसका अस्त्र बर्खा था। कुरवस नामक एक पर्वतीय जनजाति की स्त्री को मुरुगन की पत्नियों में माना गया है।
संगम युग में दक्षिण भारत में वैदिक धर्म का आगमन हुआ। दक्षिण भारत में मुरुगन की उपासना सबसे प्राचीन है। मुरुगन का एक अन्य नाम सुब्रमणयम भी मिलता है। बाद में सुब्रमणयम का एकीकरण स्कन्ध कार्तिकेय से किया गया। मुरगन का दूसरा नाम वेलन भी था। वेल या बरछी इनका प्रमुख अस्त्र था। मुरगन का प्रतीक मुर्गा था। पहाड़ी क्षेत्र के शिकारियों पर्वत देव के रूप में मुर्गन की पूजा करते थे मुरुगन की पत्नियों में एक कुरवस नामक पर्वतीय जनजाति की स्त्री हैं। परशुराम की माता मरियम्मा, चेचक की देवी थीं। विष्णु का तमिल नाम ‘तिरुमल’ है। किसान मेरूडम इंद्र देव की पूजा करते थे। पुहार के वार्षिक उत्सव में इन्द्र की विशेष पूजा होती थी।
मणिमेखलै में कापालिक शैव सन्यासियों का वर्णन है, इसमें बौद्ध धर्म के दक्षिण में प्रसार का वर्णन है। शिल्पादिकारम में जैन धर्म के संस्थानों का वर्णन है।
इसके अगले टॉपिक में गुप्त वंश की चर्चा की जाएगी ।
हमारे टेलीग्राम से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करे